परिस्थिति की विवशता बन जो
कण कण में व्यापित है,
इसी मन की विषमता है वह
निस्संदेह इसी मन की...!
ये मन ही तो स्वयं विकल हो
हर मुस्कुराहट की सत्यता को झुठलाता है,
वन में मयूर बन नॄत्य की आस लिए
अपने ही आज पर शोक मनाता है.
वन और पवन के मध्य अपना अस्तित्व टटोलता
रवि की उन नवीन किरणों पर भी,
उषा के साथ नित नई फूटतीं कोपलों पर भी
नयन मूंद कर रोता है.
परिस्थिति को सदा प्रतिकूल मान
स्वयं को परिस्थिति का दास कहता है,
विवशताओं की बेडियों में स्वयं ही जकडकर
हर एक नन्हीं सी खुशी से वंचित,
अपने आज में कल और कल में आज को तलाशता ,
चारों ओर चक्रव्यूह रचता है,
पल-पल को जीतकर आगे बढता हुआ योद्धा भी जो
चंद विफलताओं का बोझ ढोता है......
इसी मन की विषमता है वह
निस्संदेह इसी मन की .............!