Saturday, April 30, 2011

वो 'कल' जो होठों पे 'आज' बन कर मुस्कुरा रहा है ............

जी करता है
रोक लूँ वो लम्हा,
जो चला जा  रहा है.........

गर्भ में अगिनत पल संजोए
एक और अध्याय बंद होने को है,
नया पृष्ठ जो खुला जा रहा है.......

एक नई दस्तक स्वागत में खडी है
कि बढा चल राही नई धुन में,
नई राह कोई सजा रहा है......

नए सपने नए इरादे, नई मंजिलें तय करनी हैं,
हाथ बढा के थाम ले उसको,
वो कल जो तुझको बुला रहा है.......

बस नए मोड पे भूल न जाना
वो बीता कल जो जा रहा है,
वो  'कल' जो होठों पे 'आज' बन कर मुस्कुरा रहा है .............

"भरम"

एक कल्पना, एक अनुभूति
जगा गया था कोई,
भरे रेगिस्तान में मॄग-मरीचिका
दिखा गया था कोई,
दोष उसका भी न दूँगी मैं
स्वप्न जो सजा गया था कोई,
शायद खुद का ही "भरम" था जो लगा
कि अपना बना गया था कोई  !!

Wednesday, April 13, 2011

इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

खिडकी के बाहर आज भी चांद है,
छिपा है टहनियों के पीछे
नहीं पता पूरा है या आधा
पर देख सकती हूँ, झुरमुट से झाँकती चांदनी को

इतना तो पता है कि अमावस नहीं है......

कोई और रुख जो करूँ तो
ये काली अँधेरी रात डराने को आतुर लगती है
दूर तक फैले अंधियारे में
सब गुम सा लगता है, पर कुछ हो न हो

 इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

कि पत्तों के ओट से ही सही आती हुई चांदनी
चंद्रमा की सोलह कलाओं को जीवंत करती
पिछली पूर्णिमा को थाम न पाई वक्त मैं
हाँ ये चांद पूनम का तो नहीं ,

पर इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

हाँ  इतना तो पता है कि अमावस नहीं है
कि खिडकी के बाहर अज भी चांद है
काली अंधेरी रात है तो क्या
देख सकती हूँ मैं झुरमुट से झांकती चांदनी को

पूनम नहीं न सही ,
इतना तो पता है कि अमावस नहीं है..........