विस्मित है क्यूँ विवेक तेरा
लोक -विलोक का विचरक तू .
मोह कौन-सा घेर रहा है
मोह के मायाजाल में तू.
चाह-चाह के पीछे चंचल
चहुँदिशा में भागा तू.
हर हसरत से हार गया है
हुआ है तुझको हासिल क्या?
पौरुष पा कर भी पछताया
अब पृष्ठों के पीछे क्या.
काहे इतना कौतूहल अब
काल-काल का कुरुक्षेत्र सब.
तू क्यूँ ताके खड़ा अकिंचन?१
हाय री तृष्णा ....तेरी तपस् निराली !!
लोक -विलोक का विचरक तू .
मोह कौन-सा घेर रहा है
मोह के मायाजाल में तू.
चाह-चाह के पीछे चंचल
चहुँदिशा में भागा तू.
हर हसरत से हार गया है
हुआ है तुझको हासिल क्या?
पौरुष पा कर भी पछताया
अब पृष्ठों के पीछे क्या.
काहे इतना कौतूहल अब
काल-काल का कुरुक्षेत्र सब.
तू क्यूँ ताके खड़ा अकिंचन?१
हाय री तृष्णा ....तेरी तपस् निराली !!
No comments:
Post a Comment