Saturday, June 4, 2011


कितनी सरलता से आज फिर अनायास ही
बरस उठे मेघ नभमण्डल से,
बरखा की एक-एक बूंद धरती की प्यास बुझाने
गिरने को तत्पर लगती है

नहीं पता इन बूंदों को
एक प्यास जगा भी देतीं ये
रिमझिम कर तारों को छेड
तेरी याद दिला भी देतीं ये,

किंतु तपती धरा के तर्पण में
मेरी प्यास और भी तीक्ष्ण हुई
इस नयनतल पर ये मेघ तभी छा पाएँगे
जब वो सारे सुहाने पल , इन बाहों में फिर से सिमट के आएँगे.. 

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