Wednesday, April 17, 2013


मंद चल  रही थी  पवन ,
घटा ने रोक , पूछा ..
"क्यूँ री बाँवरी ,किधर चली?"

हवा ने सुदूर एक पहाड़ी को दिखा ,
इशारे में कहा-
 "वही लक्ष्य है मेरा"

"कौन तके है राह  तुम्हारी?"
बादल फिर इतराया .
पवन की दृढ़ता पर कटाक्ष करता  !

हवा मुस्कुरायी ....
"बाट तो कोई तेरी भी न जोहे यहाँ ,
जो चाहे तो संग हो ले "

जो कुछ कहते न बनी
तब जलधर से ,हामी  भरी ,
और साथ चल पड़ा ..

 गाती-गुनगुनाती बढ़ चली पवन ,
पर ज्यों ही पहाड़ी करीब आती दिखी
बादल का सर चकराया ..!

पयोद की दशा देख ,बोल पड़ी वायु -
"भय जो अगर घर कर गया हो मन में ,
तो मैं बिलकुल न बुलाऊँगी .."

"पर जलविहीन होना तो तुम्हारी नियति है ,
लक्ष्य प्राप्ति की राह में ,
कुछ अभागों को जीवन दे सको ..तो इससे बड़ा क्या गौरव ?

और न मंजूर  हो तो चंद दिन मौज के गुजार ले
भीगे हुओं पर बूँद बन बरसना
 सड़क के बाजू  की पोखर जगह तो फिर भी दे देगी !"

सकुचित पयोद ने कदम रोक लिए फिर भी ...
हवा तो तब से अब तक गतिमान है ,
परन्तु बदल आज तक रोता आया है ...!




वो समन्दर का साहिल
वो कागज़ की कश्ती ,
चले थे कहाँ से
कहाँ आ गए  हैं ....

छूट चुका है किनारा कहीं ,
कि अब नज़र भी नही आता
कश्ती कब जहाज़ बन  गयी ,
पता भी तो न चला ....

कि लहरों  के थपेड़े खा-खाकर ,
लहरों में ही जीना सीख लिया ..!

एक पूरी कोठरी ...क्यूँ दूँ मैं उसे ??

इक मूरत बिठाई थी मन में ,
आठों पहर भी बोलूँ तो कम है ,
पूजा करती थी  उसको ....

आज अचानक सोच बैठी तो ,
खयाल आया धूल की एक  परत जमी है ,
कम-से-कम "२ इंच " तो रही होगी .

द्वंद्व उठा मन में ,
दिल ने कहा वो परत हटा ,
पर जाने क्यूँ ,इक और चादर से ढक आई मैं ?

वो सूरत जो न कुछ सुनती है ,न बोलती है
न मन के भाव ही तोलती है .......
अपने मन की एक पूरी कोठरी ...क्यूँ दूँ  मैं उसे ??

'यादें'

यादें  वो नहीं जो ,
वक्त-बेवक्त दस्तक दे, सताती हैं ,
यादें वो नहीं  जो अक्सर ,
सपनों में आकर रुलाती हैं ,
 यादें वो भी नहीं जो ,
गाहे-बगाहे दिल को गुदगुदाती हैं ,
यादें वो हैं जो , दिल में कुछ ऐसे
घर बसा के बैठी हैं ....
कि जितना भी भूलना चाहो
 हर एक गुज़रे लम्हे की झलक ,
हर आने वाले पल में दिखाती  हैं ....
जितना रुलाती हैं , उतना ही हँसाती हैं .....!