Wednesday, April 17, 2013

वो समन्दर का साहिल
वो कागज़ की कश्ती ,
चले थे कहाँ से
कहाँ आ गए  हैं ....

छूट चुका है किनारा कहीं ,
कि अब नज़र भी नही आता
कश्ती कब जहाज़ बन  गयी ,
पता भी तो न चला ....

कि लहरों  के थपेड़े खा-खाकर ,
लहरों में ही जीना सीख लिया ..!

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