Sunday, May 10, 2015

एक वो मासूम सा चेहरा है
निश्छल प्रेम की भाषा है

दो भोले नयनों की बोली में
जाने क्या क्या कह जाते हो

होठों के कोरों पे बिखरी मुस्कान
तृप्ति की नई परिभाषा है

मजबूत से उन दो कन्धों पे , रखूँ जो सिर
दुनिया की फ़िकर  मिट  जाती है

हाथों में हाथ जो लेते हो
राहों को दिशा मिल जाती है

इतना बना लिया कब अपना
हर साँस मिलने को तरसती है।


जिंदगी सुन्दर तो थी पहले भी
पर आज  जैसे कोई अलंकार मिल गया है

कमी नहीं खली कोई पहले भी
पर जैसे बरसों का इंतज़ार थम गया है

अपनी भी साँसे गिनी नहीं कभी
पर आज तुम्हारी सांसों में गुलज़ार मिल गया है। 
आँखें नम हैं कुछ ऐसे आज जैसे
बरसात हो  चुकी हो चंद पल पूर्व
परन्तु हरित कोमल सी कोपल के
कोर से बूँदें , अब भी टपकने को व्याकुल हैं।

जैसे काले जलधरों के झुण्ड को
किसी मनोरम पहाड़ी  की चोटी के
बस छू देने  भर की देरी हो

Jaise unche पर्वत ke shikhar par
जमी बर्फ सूरज के स्पर्श से
जलमय होनe ko tatpar ho

गलती न तो पहाड़ ki thi
न ही सूरज की …
पर क्या कहें समय के करतब ,
पानी तो छलक ही पड़ा ........  !!
तुम जो मिले हो ,
बदले से  हर  नज़ारे हैं
तुम जो मिले हो ,
बदले से अब सितारे हैं
बदला  हुआ   है , चमन का भी मंज़र
बदले मौजों  के कनारे हैं
  
आक्रोश है या उन्माद है
गतिवत हवा में  जो राग है

बजाये है धुन कोई और ही
और थिरक उठीं मंजरियाँ बेसुध पड़ी

खुल जो गए झरोखे सभी
(जाने कब से सीलबंद कोठरी के )
रौशनदान भी हतप्रभ निहार रहा। …।!!

Wednesday, April 17, 2013


मंद चल  रही थी  पवन ,
घटा ने रोक , पूछा ..
"क्यूँ री बाँवरी ,किधर चली?"

हवा ने सुदूर एक पहाड़ी को दिखा ,
इशारे में कहा-
 "वही लक्ष्य है मेरा"

"कौन तके है राह  तुम्हारी?"
बादल फिर इतराया .
पवन की दृढ़ता पर कटाक्ष करता  !

हवा मुस्कुरायी ....
"बाट तो कोई तेरी भी न जोहे यहाँ ,
जो चाहे तो संग हो ले "

जो कुछ कहते न बनी
तब जलधर से ,हामी  भरी ,
और साथ चल पड़ा ..

 गाती-गुनगुनाती बढ़ चली पवन ,
पर ज्यों ही पहाड़ी करीब आती दिखी
बादल का सर चकराया ..!

पयोद की दशा देख ,बोल पड़ी वायु -
"भय जो अगर घर कर गया हो मन में ,
तो मैं बिलकुल न बुलाऊँगी .."

"पर जलविहीन होना तो तुम्हारी नियति है ,
लक्ष्य प्राप्ति की राह में ,
कुछ अभागों को जीवन दे सको ..तो इससे बड़ा क्या गौरव ?

और न मंजूर  हो तो चंद दिन मौज के गुजार ले
भीगे हुओं पर बूँद बन बरसना
 सड़क के बाजू  की पोखर जगह तो फिर भी दे देगी !"

सकुचित पयोद ने कदम रोक लिए फिर भी ...
हवा तो तब से अब तक गतिमान है ,
परन्तु बदल आज तक रोता आया है ...!




वो समन्दर का साहिल
वो कागज़ की कश्ती ,
चले थे कहाँ से
कहाँ आ गए  हैं ....

छूट चुका है किनारा कहीं ,
कि अब नज़र भी नही आता
कश्ती कब जहाज़ बन  गयी ,
पता भी तो न चला ....

कि लहरों  के थपेड़े खा-खाकर ,
लहरों में ही जीना सीख लिया ..!