मिले तो तुम फिर से,
मिल गए हो या नहीं, पता नहीं
मैं हूँ कुछ खास शायद
आज भी तुम्हारे लिये
पर कह नहीं सकती,
कि असक्षम हूँ पढने में तुम्हारी बातों का तात्पर्य..
कि वो सब बस रसभरा सम्वाद है,
या तुम सचमुच समझाना चाहते हो
कि वो सब बस कल और आज है,
या तुम सचमुच साथ निभाना चाहते हो
समझ नहीं पा रही ,
या समझना ही नहीं चाहती पता नहीं
मिले तो हो तुम फिर से ,
मिल गए हो या नहीं ,पता नहीं.....
Tuesday, January 11, 2011
Monday, January 10, 2011
इंतजार
रात घिर तो आई है
पर इंतजार को कहाँ विराम है
तारकदल आ जमा है ,
पर लगता नहीं कि शाम है
आज निशा के सन्नाटे में भी ,
स्वर गुंजायमान हैं
उस घनघोर अंधेरे को चीर,
शशि छवि बिखेर रहा
इस सोमकला के तले
मेरा मन भ्रमर अठ्खेल रहा
कहीं दूर वॄंदावन में ,
मधुर तान कोई छेड रहा
बडी विचित्र इस उलझन में,
व्याकुल हुआ मेरा मन है
चन्द्रयान में बैठी मैं और,
अंग अंग में गुंजन है
स्रोत प्रकाश का दीखता तो नहीं,
और सुर यंत्र के लगते भी नहीं
एक प्रश्न प्रज्ज्वलित होता है......
कहीं ये तुम ही तो नहीं हो ,
कहीं ये तुम ही तो नहीं हो..............
जो सब नवीन-सा प्रतीत होता है
कि अब आ भी जाओ,
अब आ भी जाओ तुम
कि अब और "इंतज़ार" नहीं होता है.................
Sunday, January 9, 2011
कहीं बहुत दूर आ गए हैं
मुडकर देखना भी दुश्वार लगता है...
कि सोचा ही नहीं था ,ऐसा मकाम भी होगा
तारे ही नहीं मेरा तो सारा आसमान होगा....
जब ज़मीं पर बैठे देखते थे
फ़लक पहुँच से परे लगता था.....
सारी जद्दोज़हद धरती पे दिखती थी
दिल-ए-नादान कहीं जन्नत तलाशता था...
पर इन बुलंदियों को पाकर महसूस हुआ आज
सितारा भी गर्दिश में हो सकता है....
हाँ फर्क बस इतना है...................
सिर छुपाने के लिए , उसके पास आसमां भी नहीं होता है!
मुडकर देखना भी दुश्वार लगता है...
कि सोचा ही नहीं था ,ऐसा मकाम भी होगा
तारे ही नहीं मेरा तो सारा आसमान होगा....
जब ज़मीं पर बैठे देखते थे
फ़लक पहुँच से परे लगता था.....
सारी जद्दोज़हद धरती पे दिखती थी
दिल-ए-नादान कहीं जन्नत तलाशता था...
पर इन बुलंदियों को पाकर महसूस हुआ आज
सितारा भी गर्दिश में हो सकता है....
हाँ फर्क बस इतना है...................
सिर छुपाने के लिए , उसके पास आसमां भी नहीं होता है!
पेशोपेश
सच बोलूँ या झूठ, ये प्रश्न ही नहीं है शायद
बस बोल पडी तो सब खत्म हो जाएगा.
सच के दामन में जो राज़ है छुपा,
गर खुल गया तो सबको रुलाएगा
और झूठ भी अगर बोला तो,
विश्वास ही टूट कर बिखर जाएगा
न जाने ऐसे मोड पर लाकर
क्यूँ बेबस छोड देती है जिंदगी
"पेशोपेश" की वो परिस्थिति..........
न जाने ऐसे मोड पर लाकर ,
कयूँ बेबस छोड देती है जिंदगी?
बस बोल पडी तो सब खत्म हो जाएगा.
सच के दामन में जो राज़ है छुपा,
गर खुल गया तो सबको रुलाएगा
और झूठ भी अगर बोला तो,
विश्वास ही टूट कर बिखर जाएगा
न जाने ऐसे मोड पर लाकर
क्यूँ बेबस छोड देती है जिंदगी
"पेशोपेश" की वो परिस्थिति..........
न जाने ऐसे मोड पर लाकर ,
कयूँ बेबस छोड देती है जिंदगी?
उलझन
दिल में बडी विचित्र-सी उलझन है
न जाने कैसा सूनापन है
क्यूँ निराश हुआ ये मन है, कोई तो बता दे!
मायूसी का सागर खडा सामने
मानो आगोश में लेने को है ,
एक भँवर-सा उठा जा रहा, कोई तो रोक ले!
जैसे कोई सपना टूटा हो
टुकडे संजोते हाथों को चुभते हैं
या फिर कोई अपना रूठा हो, कोई तो मना ले!
कश्ती पडी है मझधार में,कोई तो बचा ले!
एक लौ रौशनी की जला कर , मुस्कुराने की वजह दे!
मुस्कुराने की कोई तो वजह दे....
न जाने कैसा सूनापन है
क्यूँ निराश हुआ ये मन है, कोई तो बता दे!
मायूसी का सागर खडा सामने
मानो आगोश में लेने को है ,
एक भँवर-सा उठा जा रहा, कोई तो रोक ले!
जैसे कोई सपना टूटा हो
टुकडे संजोते हाथों को चुभते हैं
या फिर कोई अपना रूठा हो, कोई तो मना ले!
कश्ती पडी है मझधार में,कोई तो बचा ले!
एक लौ रौशनी की जला कर , मुस्कुराने की वजह दे!
मुस्कुराने की कोई तो वजह दे....
अनकहा डर
वो पंछियों का कलरव, वो टहनियों कि मस्ती
वो सरपट भागते विहंगों का काफिला,
टपकती बूंदें किसी दूर चमन से
जो आज आ लगीं मेरे कोरे से मन से,
एक हलचल सी उठी मौन जलधि में
कि अपना ही प्रतिबिंब देखे न दीखता है,
लग पडी हूँ एक एक कतरा जुटाने में
कि दिल का कोइ कोना अपनी हस्ती तलाशता है.
अपरिचित हवा का झोंका
बरसों पुरातन रेत उडा गया मानों,
कि दूर तक विस्तृत तनहाई में
मनमीत सीप की आभा संदीप्त हुई है,
इस कांति में डूब तो जाऊँ
नए प्रभात में उषा की किरण बन समाऊँ,
पर कहीं दूर लहरों में झूलती घास का वो मंज़र
कोई "अनकहा डर" प्रबल कर रहा है.
हाँ वही अनकहा डर प्रबल कर रहा है......
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