रात घिर तो आई है
पर इंतजार को कहाँ विराम है
तारकदल आ जमा है ,
पर लगता नहीं कि शाम है
आज निशा के सन्नाटे में भी ,
स्वर गुंजायमान हैं
उस घनघोर अंधेरे को चीर,
शशि छवि बिखेर रहा
इस सोमकला के तले
मेरा मन भ्रमर अठ्खेल रहा
कहीं दूर वॄंदावन में ,
मधुर तान कोई छेड रहा
बडी विचित्र इस उलझन में,
व्याकुल हुआ मेरा मन है
चन्द्रयान में बैठी मैं और,
अंग अंग में गुंजन है
स्रोत प्रकाश का दीखता तो नहीं,
और सुर यंत्र के लगते भी नहीं
एक प्रश्न प्रज्ज्वलित होता है......
कहीं ये तुम ही तो नहीं हो ,
कहीं ये तुम ही तो नहीं हो..............
जो सब नवीन-सा प्रतीत होता है
कि अब आ भी जाओ,
अब आ भी जाओ तुम
कि अब और "इंतज़ार" नहीं होता है.................
now this is some great stuff.......... man u rock in everytin
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