Sunday, January 9, 2011

अनकहा डर

वो पंछियों का कलरव, वो टहनियों कि मस्ती
वो सरपट भागते विहंगों का काफिला,
टपकती बूंदें किसी दूर चमन से 
जो आज आ लगीं मेरे कोरे से मन से,

एक हलचल सी उठी मौन जलधि में
कि अपना ही प्रतिबिंब देखे न दीखता है, 
 लग पडी हूँ  एक एक कतरा जुटाने में
कि दिल का कोइ कोना अपनी हस्ती तलाशता है.

अपरिचित हवा का झोंका
बरसों पुरातन रेत उडा गया मानों,
कि दूर तक विस्तृत तनहाई में
मनमीत सीप की आभा संदीप्त हुई है,

इस कांति में डूब तो जाऊँ 
नए प्रभात में  उषा की किरण बन  समाऊँ,
पर कहीं दूर लहरों में झूलती घास का वो मंज़र 
कोई "अनकहा डर" प्रबल कर रहा है.

हाँ वही अनकहा डर प्रबल कर रहा है......

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