Friday, September 2, 2011

जो तू आज भी हाँ कह दे तो............

कोई छोड़ दे आज तो  जाने
 कितने पन्ने भर दूँ
जितना दर्द भरा है ज़हन में
 कहो तो सब पेश कर दूँ

तेरे इस रवैये पे तो
 तुझसे पहले खुद ही नाता तोड़ दूँ
जो तुझपे जाकर रुका करती थी
 वे सारी राहें मोड़ दूँ

पर नए मोड़ का क्या पता
 कहाँ जाकर छोड़ेगा
किसी और पे यकीं किया तो
 वो भी कभी मुँह मोड़ेगा

खुद की इस हालत का इल्ज़ाम
 खुद पे लूँ या तुझे दूँ
पर इतना तो है तू आज भी हाँ कह दे तो
 तेरी खातिर सब छोड़ दूँ.........

Saturday, June 25, 2011

जीने के बहाने लाखों थे मगर...........








जीने के बहाने लाखों थे मगर
जीना ही कभी आया न हमें 

जीवन में अफसाने कितने मगर
इक बारी सुनाना आया न हमें

अगनित साथी मिले राहों में
इक को भी अपनाना आया न हमें 

राहों में फूल बिछे थे मगर
सेज सजाना न आया हमें

अब मायूसी में बैठे रोते हैं
कि जीवन ही रास न आया हमें

जीने के बहाने लाखों थे मगर
जीना ही कभी आया न हमें...........!!

Saturday, June 4, 2011















उन मधुर स्वप्नों की गहराई में 
गोते लगा रहा था मेरा मन
खुशियों के उन फव्वारों के संग
और भी दूर जाने की थी लगन

किसी जलप्रलय ने रोका होता 
तो ढाढस भी बँधा लेती
पर उठा तो था अपने अंदर ही तूफ़ान 
जो धरातल के कठिन सत्य पर ले आया

न तो स्रोत उन स्वप्नों का जाना था 
न कोई कारण तूफ़ान आगमन का
ये कैसी विडम्बना है कि समझ ही न आया 
वे स्वप्न सच थे या धरातल छलावा?

कितनी सरलता से आज फिर अनायास ही
बरस उठे मेघ नभमण्डल से,
बरखा की एक-एक बूंद धरती की प्यास बुझाने
गिरने को तत्पर लगती है

नहीं पता इन बूंदों को
एक प्यास जगा भी देतीं ये
रिमझिम कर तारों को छेड
तेरी याद दिला भी देतीं ये,

किंतु तपती धरा के तर्पण में
मेरी प्यास और भी तीक्ष्ण हुई
इस नयनतल पर ये मेघ तभी छा पाएँगे
जब वो सारे सुहाने पल , इन बाहों में फिर से सिमट के आएँगे.. 

Saturday, May 14, 2011






यूँ तो मेघ स्वतः घिर आते हैं
हर आंगन  खिल उठता है, उस  रिमझिम एहसास से
मगर आज  क्यूँ लगता है
इस पावस की धनख  को शर कहीं और से प्राप्त हुए
जो मन को भेदने निकला है,
कहीं वह प्रियवर का स्नेह तो नहीं ?

Saturday, April 30, 2011

वो 'कल' जो होठों पे 'आज' बन कर मुस्कुरा रहा है ............

जी करता है
रोक लूँ वो लम्हा,
जो चला जा  रहा है.........

गर्भ में अगिनत पल संजोए
एक और अध्याय बंद होने को है,
नया पृष्ठ जो खुला जा रहा है.......

एक नई दस्तक स्वागत में खडी है
कि बढा चल राही नई धुन में,
नई राह कोई सजा रहा है......

नए सपने नए इरादे, नई मंजिलें तय करनी हैं,
हाथ बढा के थाम ले उसको,
वो कल जो तुझको बुला रहा है.......

बस नए मोड पे भूल न जाना
वो बीता कल जो जा रहा है,
वो  'कल' जो होठों पे 'आज' बन कर मुस्कुरा रहा है .............

"भरम"

एक कल्पना, एक अनुभूति
जगा गया था कोई,
भरे रेगिस्तान में मॄग-मरीचिका
दिखा गया था कोई,
दोष उसका भी न दूँगी मैं
स्वप्न जो सजा गया था कोई,
शायद खुद का ही "भरम" था जो लगा
कि अपना बना गया था कोई  !!

Wednesday, April 13, 2011

इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

खिडकी के बाहर आज भी चांद है,
छिपा है टहनियों के पीछे
नहीं पता पूरा है या आधा
पर देख सकती हूँ, झुरमुट से झाँकती चांदनी को

इतना तो पता है कि अमावस नहीं है......

कोई और रुख जो करूँ तो
ये काली अँधेरी रात डराने को आतुर लगती है
दूर तक फैले अंधियारे में
सब गुम सा लगता है, पर कुछ हो न हो

 इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

कि पत्तों के ओट से ही सही आती हुई चांदनी
चंद्रमा की सोलह कलाओं को जीवंत करती
पिछली पूर्णिमा को थाम न पाई वक्त मैं
हाँ ये चांद पूनम का तो नहीं ,

पर इतना तो पता है कि अमावस नहीं है...........

हाँ  इतना तो पता है कि अमावस नहीं है
कि खिडकी के बाहर अज भी चांद है
काली अंधेरी रात है तो क्या
देख सकती हूँ मैं झुरमुट से झांकती चांदनी को

पूनम नहीं न सही ,
इतना तो पता है कि अमावस नहीं है..........

Tuesday, January 11, 2011

मिले तो तुम फिर से,
मिल गए हो या नहीं, पता नहीं
मैं हूँ कुछ खास शायद
आज भी तुम्हारे लिये
पर कह नहीं सकती,
कि असक्षम हूँ पढने में तुम्हारी बातों का तात्पर्य..
कि वो सब बस रसभरा सम्वाद है,
या तुम सचमुच समझाना चाहते हो
कि वो सब बस कल और आज है,
या तुम सचमुच साथ निभाना चाहते हो
समझ नहीं पा रही ,
या समझना ही नहीं चाहती पता नहीं
मिले तो हो तुम फिर से ,
 मिल गए हो या नहीं ,पता नहीं.....

Monday, January 10, 2011

इंतजार


रात घिर तो आई है
पर इंतजार को कहाँ विराम है
तारकदल आ जमा है ,
पर लगता नहीं कि शाम है
आज निशा के सन्नाटे में भी ,
स्वर गुंजायमान हैं

उस घनघोर अंधेरे को चीर, 
शशि छवि बिखेर रहा
इस सोमकला के तले 
मेरा मन भ्रमर अठ्खेल रहा
कहीं दूर वॄंदावन में ,
मधुर तान कोई छेड रहा

बडी विचित्र  इस उलझन में,
व्याकुल हुआ मेरा मन है
चन्द्रयान में बैठी मैं और,
अंग अंग में गुंजन है

स्रोत प्रकाश का दीखता तो नहीं,
और सुर यंत्र के लगते भी नहीं 
एक प्रश्न प्रज्ज्वलित होता है......

कहीं ये तुम ही तो नहीं हो ,
कहीं ये तुम ही तो नहीं हो..............
जो सब नवीन-सा प्रतीत होता है

कि अब आ भी जाओ, 
अब आ भी जाओ तुम 
कि अब और "इंतज़ार" नहीं होता है.................

Sunday, January 9, 2011

वो मस्ती का आलम ,
वो हँसी वो ठिठोली
हर दिन बदलता मौसम ,
जैसे हो आँखमिचौली

न जाने सब कहाँ खो गए ,
 कि जिंदगी वीरान लगती है
अब तो ना सूरज चमकता है ,
न ही रोज़ शाम ढलती है.

ऐसा क्या गुज़र गया नहीं पता
सब तूफान से पहले का ऐलान लगती हैं....
कहीं बहुत दूर आ गए हैं
मुडकर देखना भी दुश्वार लगता है...

कि सोचा ही नहीं था ,ऐसा मकाम भी होगा
तारे ही नहीं मेरा तो सारा आसमान होगा....

जब ज़मीं पर बैठे देखते थे
फ़लक पहुँच से परे लगता था.....

सारी जद्दोज़हद धरती पे दिखती थी
दिल-ए-नादान कहीं जन्नत तलाशता था...

पर इन बुलंदियों को पाकर महसूस हुआ आज
सितारा भी गर्दिश में हो सकता है....

हाँ फर्क बस इतना है...................
सिर छुपाने के लिए , उसके पास आसमां भी नहीं होता है!

पेशोपेश

सच बोलूँ या झूठ, ये प्रश्न ही नहीं है शायद
बस बोल पडी तो सब खत्म हो जाएगा.

सच के दामन में जो राज़ है छुपा,
गर खुल गया तो सबको रुलाएगा

और झूठ भी अगर बोला तो,
विश्वास ही टूट कर बिखर जाएगा

न जाने  ऐसे मोड पर लाकर
 क्यूँ बेबस छोड देती है जिंदगी
"पेशोपेश" की वो परिस्थिति..........

न जाने ऐसे मोड पर लाकर ,
कयूँ बेबस छोड देती है जिंदगी?

उलझन

दिल में बडी विचित्र-सी उलझन है
न जाने कैसा सूनापन है
क्यूँ निराश हुआ ये मन है, कोई तो बता दे!

मायूसी का सागर खडा सामने
मानो आगोश में लेने को है ,
एक भँवर-सा उठा जा रहा, कोई तो रोक ले!

जैसे कोई सपना टूटा हो
टुकडे संजोते हाथों को चुभते हैं
या फिर कोई अपना रूठा हो, कोई तो मना ले!

कश्ती पडी है मझधार में,कोई तो बचा ले!
एक लौ रौशनी की जला कर , मुस्कुराने की वजह दे!
मुस्कुराने की कोई तो वजह दे....

अनकहा डर

वो पंछियों का कलरव, वो टहनियों कि मस्ती
वो सरपट भागते विहंगों का काफिला,
टपकती बूंदें किसी दूर चमन से 
जो आज आ लगीं मेरे कोरे से मन से,

एक हलचल सी उठी मौन जलधि में
कि अपना ही प्रतिबिंब देखे न दीखता है, 
 लग पडी हूँ  एक एक कतरा जुटाने में
कि दिल का कोइ कोना अपनी हस्ती तलाशता है.

अपरिचित हवा का झोंका
बरसों पुरातन रेत उडा गया मानों,
कि दूर तक विस्तृत तनहाई में
मनमीत सीप की आभा संदीप्त हुई है,

इस कांति में डूब तो जाऊँ 
नए प्रभात में  उषा की किरण बन  समाऊँ,
पर कहीं दूर लहरों में झूलती घास का वो मंज़र 
कोई "अनकहा डर" प्रबल कर रहा है.

हाँ वही अनकहा डर प्रबल कर रहा है......